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क्या है के. एम. नानावती केस की सच्चाई? जानिए इस ऐतिहासिक मामले की पूरी कहानी!

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के. एम. नानावती केस: एक ऐसा मामला जिसने भारत को हिला दिया

भारत का सबसे प्रसिद्ध के. एम. नानावती केस (सोशल मीडिया से)


भारत का सबसे प्रसिद्ध के. एम. नानावती केस: क्या आपने कभी सुना है एक ऐसे मामले के बारे में जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया? यह मामला न केवल अदालत में लड़ा गया, बल्कि यह अखबारों, गलियों और घरों में भी चर्चा का विषय बना। यह कहानी है के. एम. नानावती केस की, जो 1959 में शुरू हुआ और आज भी भारत के कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है। यह एक प्रेम त्रिकोण की कहानी है, जिसमें एक नौसेना अधिकारी, उसकी पत्नी और एक व्यवसायी शामिल हैं, जो एक हत्या की ओर बढ़ी। आइए जानते हैं कि कैसे एक पल का गुस्सा इतिहास को बदल सकता है।


केस की शुरुआत: एक आदर्श जीवन का अंत

कवास मानेकशॉ नानावती, जिन्हें के. एम. नानावती के नाम से जाना जाता है, एक प्रतिष्ठित नौसेना अधिकारी थे। पारसी समुदाय से संबंधित नानावती ने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल किया था। वह भारतीय नौसेना में कमांडर थे और अपनी ड्यूटी के प्रति हमेशा गंभीर रहते थे। उनकी शादी सिल्विया से हुई थी, जो इंग्लैंड की निवासी थीं। दोनों ने 1949 में पोर्ट्समाउथ, इंग्लैंड में विवाह किया था और उनके तीन बच्चे थे - दो बेटे और एक बेटी। बाहरी नजर से उनकी जिंदगी एकदम आदर्श लगती थी, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि आदर्श दिखने वाली जिंदगी के पीछे कई राज छिपे होते हैं।


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नानावती की नौकरी के कारण उन्हें कई महीनों तक समुद्र में रहना पड़ता था। उनकी अनुपस्थिति में सिल्विया और बच्चे मुंबई में रहते थे। यहीं से कहानी में मोड़ आता है। मुंबई में नानावती परिवार की मुलाकात प्रेम भगवानदास आहूजा से हुई, जो एक सिन्धी व्यवसायी थे। प्रेम स्मार्ट और आकर्षक थे और उनकी कई महिलाओं के साथ अफेयर की चर्चाएँ थीं। नानावती और आहूजा की दोस्ती 1956 में सामान्य मित्रों के माध्यम से शुरू हुई।


सिल्विया, जो अपने पति की लंबी अनुपस्थिति में अकेली थीं, धीरे-धीरे प्रेम के करीब आने लगीं। दोनों के बीच दोस्ती गहरी हुई और यह एक प्रेम संबंध में बदल गई। लगभग डेढ़ साल तक उनका अफेयर चला। सिल्विया को प्रेम से सच्चा प्यार हो गया था और वह नानावती से तलाक लेकर प्रेम से शादी करना चाहती थीं। लेकिन प्रेम का इरादा शायद इतना गंभीर नहीं था। सिल्विया ने बाद में अदालत में बताया कि प्रेम ने कभी शादी की बात नहीं की।


27 अप्रैल 1959: वह दिन जब सब कुछ बदल गया

27 अप्रैल 1959 का दिन नानावती के लिए सामान्य था। वह अपनी नेवी ड्यूटी से लौटे थे, लेकिन इस बार सिल्विया का व्यवहार कुछ अजीब था। उन्होंने नानावती से दूरी बनानी शुरू कर दी। जब नानावती ने पूछा, तो सिल्विया ने सचाई बताई कि उनका प्रेम आहूजा के साथ अफेयर चल रहा है। यह सुनकर नानावती का दिल टूट गया। एक पल में उनकी आदर्श जिंदगी बिखर गई। लेकिन उन्होंने उस समय गुस्सा नहीं दिखाया और अपने परिवार को मेट्रो सिनेमा में फिल्म दिखाने ले गए।


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हालांकि, अंदर ही अंदर नानावती का गुस्सा भड़क रहा था। मूवी थिएटर से निकलकर वह सीधे अपनी नेवी शिप पर गए और एक बहाना बनाकर अपनी सर्विस रिवॉल्वर और छह गोलियाँ ले लीं। उन्होंने कहा कि उन्हें रात में अहमदनगर जाना है और सुरक्षा के लिए रिवॉल्वर चाहिए। लेकिन उनका असली मकसद कुछ और था। वह प्रेम आहूजा से मिलने गए। पहले वह उनके ऑफिस गए, लेकिन प्रेम वहाँ नहीं थे। फिर नानावती सीधे प्रेम के घर पहुँचे।


प्रेम के नौकर ने दरवाजा खोला। नानावती सीधे प्रेम के बेडरूम में गए, जहाँ प्रेम तौलिया लपेटे हुए थे। नानावती ने उनसे पूछा कि क्या वह सिल्विया से शादी करेंगे। प्रेम ने जवाब दिया कि क्या मैं हर उस औरत से शादी करूँ जिसके साथ मैं सोया हूँ? यह जवाब नानावती के लिए आग में घी डालने जैसा था। गुस्से में आकर नानावती ने अपनी रिवॉल्वर निकाली और दोनों के बीच झड़प हुई। फिर तीन गोलियाँ चलीं और प्रेम आहूजा वहीं ढेर हो गए।


इसके बाद नानावती ने कुछ ऐसा किया जो इस केस को और भी नाटकीय बना देता है। वह सीधे पुलिस स्टेशन गए और डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस जॉन लोबो को सरेंडर कर दिया। उन्होंने सारी बात कबूल की, लेकिन यह भी कहा कि उनका इरादा प्रेम को मारने का नहीं था।


कोर्ट में क्या हुआ?

नानावती के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 304 (कपल होमिसाइड) के तहत मामला दर्ज किया गया। यह मामला सेशन कोर्ट में जूरी ट्रायल के तहत चला। उस समय भारत में जूरी सिस्टम था, जिसमें आम लोग फैसला सुनाते थे। नानावती के वकीलों ने दलील दी कि यह हत्या नहीं बल्कि गुस्से के एक पल में हुआ हादसा था। उन्होंने कहा कि प्रेम के जवाब ने नानावती को गहरी ठेस पहुँचाई थी।


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नानावती के वकीलों ने उन्हें एक सच्चा, देशभक्त और शरीफ इंसान बताया। दूसरी ओर, प्रेम को एक प्लेबॉय के रूप में पेश किया गया। सिल्विया ने अदालत में गवाही दी कि वह प्रेम से प्यार करती थीं, लेकिन प्रेम की मंशा स्पष्ट नहीं थी। जूरी ने 8:1 के बहुमत से नानावती को बेगुनाह करार दिया। लेकिन सेशन जज को यह फैसला पसंद नहीं आया और उन्होंने इसे बॉम्बे हाई कोर्ट में भेज दिया।


बॉम्बे हाई कोर्ट में जज जे. एल. कपूर ने जूरी के फैसले को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि नानावती का कत्ल प्रीमेडिटेड था। कोर्ट ने माना कि सिल्विया की कबूलनाम और प्रेम की मौत के बीच करीब तीन घंटे का गैप था। हाई कोर्ट ने नानावती को धारा 302 के तहत दोषी ठहराया और उम्रकैद की सजा सुनाई।


नानावती ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने 1961 में हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया। कोर्ट ने कहा कि नानावती ने रिवॉल्वर लेने से लेकर प्रेम के घर जाने तक जो कदम उठाए, वह सब सोच-समझकर थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी नानावती को उम्रकैद की सजा दी।


मीडिया और जनता की भूमिका

यह केस केवल अदालत तक सीमित नहीं रहा। इसने पूरे देश को दो खेमों में बाँट दिया। मुंबई के एक टैबलॉयड ने नानावती का खुलकर समर्थन किया। इस मैगजीन ने नानावती को एक ईमानदार, देशभक्त अफसर और प्रेम को एक बिगड़ैल व्यवसायी के रूप में पेश किया। इस मीडिया कवरेज ने जनता की राय को बहुत प्रभावित किया। लोग नानावती के समर्थन में रैलियाँ निकालने लगे।


इस केस में पारसी और सिन्धी समुदाय के बीच तनाव भी देखा गया। नानावती पारसी थे और प्रेम सिन्धी। मीडिया ने इस केस को और हवा दी। प्रेम की बहन ने अदालत में गवाही दी कि प्रेम की मौत के समय उनका तौलिया उनके शरीर पर था। इससे यह सवाल उठा कि क्या वास्तव में कोई झड़प हुई थी।


कानूनी और सामाजिक प्रभाव

के. एम. नानावती केस ने भारत के कानूनी सिस्टम को हमेशा के लिए बदल दिया। इस केस के बाद जूरी ट्रायल सिस्टम पर सवाल उठने लगे। 1962 में इस केस के बाद भारत में जूरी ट्रायल खत्म कर दिया गया। इसके बाद से केस जजों के सामने बेंच ट्रायल के तहत सुने जाने लगे।


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इस केस ने मीडिया ट्रायल की ताकत को भी उजागर किया। मीडिया ने नानावती को एक नायक बना दिया था। लोग उन्हें एक ऐसे पति के रूप में देखने लगे जिसने अपनी इज्जत बचाने के लिए कदम उठाया। लेकिन कानून की नजर में यह एक सोचा-समझा कत्ल था। इस केस ने यह सवाल उठाया कि क्या इमोशन्स को कानून के सामने जस्टिफिकेशन माना जा सकता है?


नानावती को क्या हुआ?

नानावती को उम्रकैद की सजा मिली, लेकिन उनकी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। उनके समर्थन में इतनी जनता की सहानुभूति थी कि 1964 में महाराष्ट्र की गवर्नर विजयलक्ष्मी पंडित ने उन्हें माफी दे दी। माफी के बाद नानावती अपनी पत्नी और बच्चों के साथ कनाडा चले गए। उन्होंने अपनी जिंदगी चुपचाप बिताई और 2003 में उनका निधन हो गया।


केस ने क्या सिखाया?

नानावती केस केवल एक हत्या का मामला नहीं था। यह एक प्रेम त्रिकोण की त्रासदी थी, जिसमें प्यार, गुस्सा और इज्जत का सवाल शामिल था। इसने दिखाया कि कैसे एक पल का गुस्सा किसी की जिंदगी को हमेशा के लिए बदल सकता है। इस केस ने कानून, मीडिया और समाज के बीच के रिश्ते को उजागर किया।


कई किताबों और फिल्मों ने इस केस को अमर कर दिया। 1963 में 'ये रास्ते हैं प्यार के', 1973 में 'अचानक' और 2016 में 'रुस्तम' जैसी फिल्में इस केस से प्रेरित थीं। रुस्तम में अक्षय कुमार ने नानावती का किरदार निभाया था।


आज की नजर में

आज जब हम इस केस को देखते हैं, तो कई सवाल उठते हैं। क्या नानावती का गुस्सा जायज था? क्या प्रेम की गलती इतनी बड़ी थी कि उसकी सजा मौत थी? और सबसे बड़ा सवाल - क्या कानून को इमोशन्स के सामने झुकना चाहिए? यह केस आज की पीढ़ी को यह बताता है कि प्यार और गुस्सा दोनों खतरनाक हो सकते हैं।


अगर आप मुंबई जाएँ तो शायद जीवंज्योत बिल्डिंग की वो गलियाँ अब वैसी न दिखें। लेकिन नानावती केस की कहानी आज भी जिंदा है। यह एक ऐसी कहानी है जो हमें प्यार, धोखे और इंसाफ के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। अगली बार जब आप कोई क्राइम ड्रामा देखें, तो इस केस को जरूर याद करें, क्योंकि यह भारत का सबसे नाटकीय और वास्तविक केस है।


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